गुरुवार, 13 जुलाई 2023

नमः शिवाय

 नमः शिवाय ! आज 'अमर उजाला' समाचार पत्र के 'कल्पवृक्ष' 

पेज पर प्रकाशित मेरा आलेख- 'मंत्र जाप [नमः शिवाय] से 

शिवमय हो जाता है प्राणी' आपके लिए. पं. जयगोविंद शास्त्री   


शुक्रवार, 30 जून 2023

एकादशी, हरिशयनी एकादशी

 सप्ताह का मंत्र 128 

सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् | स भूमिँसर्वं तस्पृत्वाऽत्यतिष्ठद्दशाङगुलम् ||


पुरुषऽएवेदँ सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम् | उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ||

एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पुरुषः | पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ||

त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत्पुनः | ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशनेऽअभि ||

ततो विराडजायत विराजोऽअधि पूरुषः | स जातोऽअत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः ||

तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम् | पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये || 

स्रोत- ऋग्वेद संहिता/यजुर्वेद

संकेत-

प्रस्तुत मंत्र 'ऋग्वेद' संहिता के दशम मण्डल से लिया गया है, यही दिव्य मंत्र यजुर्वेद में भी आया है जिसे महर्षियों ने 'पुरुषसूक्त' नाम से अलंकृत किया है | मंत्र के द्वारा ऐसे विराट पुरुष के विषय में बतलाया गया है जो परब्रह्म का विग्रहरूप हैं तथा जिनके हजारों सिर, हजारों नेत्र और हजारों पैर हैं | यह चराचर सृष्टि उन्हीं परमपुरुष की परिकल्पना मात्र है |  

मंत्रार्थ- 

जो सहस्रों सिरवाले, सहस्रों नेत्रवाले और सहस्रों चरणवाले विराट पुरुष हैं, वे सारे ब्रह्माँड को आवृत करके भी दस अंगुल शेष रहते हैं | जो सृष्टि बन चुकी और जो बनने वाली है, यह सब विराट पुरुष ही हैं | इस अमर जीव-जगत के भी वे ही स्वामी हैं और जो अन्न द्वारा वृद्धि को प्राप्त करते हैं, उनके भी वे ही स्वामी हैं | विराट पुरुष की महत्ता अति विस्तृत है | इस श्रेष्ठ पुरुष के एक भाग में सभी प्राणी हैं और तीन भाग में अनंत अंतरिक्ष स्थित हैं | चार भागों वाले विराट पुरुष के एक भाग में यह सारा संसार, जड़ और चेतन विविध रूपों में समाहित है | उसी विराट पुरुष से यह ब्रह्मांड उत्पन्न हुआ तथा उसी विराट पुरुष से समस्त जीव भी उत्पन्न हुए | वही देहधारी रूप में सबसे श्रेष्ठ हुआ, जिसने सबसे पहले पृथ्वी को, फिर शरीर धारियों को उत्पन्न किया | उस सर्वश्रेष्ठ विराट प्रकृति यज्ञ से दधियुक्त घृत प्राप्त हुआ जिससे विराट पुरुष की पूजा होती है | वायुदेव से संबंधित पशु, हिरण, गौ, अश्वादि की उत्पत्ति भी उसी विराट पुरुष के द्वारा ही हुई |

तात्पर्य-

ऋग्वेद के दशम मण्डल का नब्बेवाँ सूक्त जिसे 'पुरुषसूक्त' कहा गया है, उनमें दिए गए मंत्रों के द्वारा उन चराचरपति जगत नियंता, अच्युत, अनंत, अनादि श्रीहरि विष्णु का स्तवन किया गया है जिनमें अखिल ब्रह्मांड समाया हुआ है | उनके विराटरूप  का वर्णन करते हुए वेद कहते हैं कि, ब्रह्मलोक जिनका शीश, पाताल जिनके चरण, शिव जिनका अहंकार, ब्रह्मा जिनकी बुद्धि, सूर्य-चन्द्र जिनके नेत्र, वेद जिनकी वाणी, घने मेघमण्डल जिनके काले केश, भयंकर काल भी जिनकी भृकुटी संचालन से गतिमान होता है | उत्पत्ति, पालन और प्रलय जिनकी चेष्ठा है तथा जो सृष्टि का आदि और अन्त हैं उन्हीं श्रीहरि विष्णु का 'पुरुषसूक्त' मंत्रों द्वारा स्तवन किया गया है | इन मंत्रों की महत्ता का बोध इसी से होता है कि इनके ऋषि स्वयं 'नारायण' ही हैं | सूक्त में कुल सोलह मंत्र हैं जिनमें प्रथम पंद्रह मंत्र 'अनुष्टुप' छंद में हैं और सोलहवां मंत्र [यज्ञेन यज्ञमयजन्त..] त्रिष्टुप छंद में है | यह सूक्त आध्यात्मिक, कर्मकांड तथा पूजा-पाठ की दृष्टि से भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है | किसी भी पूजा-आराधना के समय वैदिक विद्वान् 'पुरुषसूक्त' के मंत्रों का पाठ करके ही पूजन-अनुष्ठानादि संपन्न करते हैं |


गुरुवार, 15 जून 2023

प्राणायाम की साधना से नष्ट होते हैं पाप

 आज 'अमर उजाला' समाचार पत्र के 'कल्पवृक्ष' पेजपर


प्रकाशित मेरा आलेख- 'प्राणायाम की साधना से नष्ट होते हैं पाप' आपके लिए. पं. जयगोविंद शास्त्री 

शनिवार, 1 अप्रैल 2023

विवाह मंगल स्तोत्र

 विवाह मंगल स्तोत्र 

अद्य विवाहस्य वर्धापनदिनस्य 

श्रीमत् पंकज विष्टरो हरिहरौ वायुर्महेन्द्रोनलश्चन्द्रो भास्कर वित्तपालवरुणाः प्रेताधिपाद्या ग्रहाः ||

प्रद्युम्नो नलकुबरौ सुरगजस् चिंतामणिः कौस्तुभः स्वामी शक्तिधरश्च लांगलधरः कुर्वन्तु वो मंगलम् ||

गौरी श्रीकुलदेवता च सुभगा भूमिः प्रपूर्णाशुभासावित्री च सरस्वति च सुरभिः सत्यवृताऽरुंधती ||

स्वाहा जांबवति च रुक्मभगिनी दुःस्वप्न विध्वंसिनी वेला चांबुनिधे समीनमकरा कुर्वन्तु वो मंगलम् ||

गंगा सिंधु सरस्वति च यमुना गोदावरी नर्मदा कावेरी सरयुर्महेन्द्रतनया चर्मण्वती वेदिका ||

क्षिप्रा वेगवती महासुर नदी ख्याता च या गंडक पूण्याः पूण्यजलैः समुद्र सहिता कुर्वन्तु वो मंगलम् ||

लक्ष्मीः कौस्तुभ पारिजातक सुरा धन्वंतरिश्चंद्रमा धेनुः कामदूधा सुरेश्वरगजो रंभादि देवांगना ||

अश्वः सप्तमुखो विषं हरिधेनुः शंखोऽमृतं चाम्बुधे रत्नानीति चतुर्दश प्रतिदिनं कुर्वन्तु वो मंगलम् ||

ब्रह्मा देवपतिः शिवः पशुपतिः सूर्यो ग्रहाणां पतिः शक्रो देवपति र्हविर्हुतपतिः स्कंदश्च सेनापतिः ||

विष्णु र्यज्ञपति र्यमः पितृपतिः शक्ति पतिनां पतिः सर्वे ते पतयः सुमेरु सहिता कुर्वन्तु वो मंगलम् ||

दुर्वासाश्च्यवनोऽथ गौतम मुनिर्व्यासो वसिष्ठोऽसितः कौशल्यः कपिलः कुमार कवषौ कुंभोद्भव काश्यपः ||

गर्गोदेवल आर्ष्टिषेण ऋतवाग् बोध्योभृगुश्चासुरिरमार्कंडेय शुकौ पतंजलि मुनिः कुर्वंतु वो मंगलम् ||

इक्ष्वाकुर्न भगोंऽबरीष पुरुजित् कारुषकः केतुमान्मांधाता पुरुकुत्सरोहितसुतौ चंपोवृको बाहुकः ||

खट्वांगो रघुवंश राजतिलको रामो नलो नाहुषःशांतिः शंतनु भीष्म धर्मतनुजा कुर्वन्तु वो मंगलम् ||

श्रीमान् काश्यप गोत्रजो रविरलम् चंद्रः कठोरच्छवि रात्रेयो पृथिवी शिखिनिभोजो द्वाजेकुले जन्मभाक् ||

सौम्यः पीत उदंगमुखो गुरुरयं शुक्रस्तुलाधीश्वरो मंदो राहुरहो च केतुरपियः कुर्वन्तु वो मंगलम् ||

ब्रह्मबिन्दूपनिषद

 ब्रह्मबिन्दूपनिषद 

मनो हि द्विविधं प्रोक्तं शुद्धं चाशुद्धमेव च | अशुद्धं कामसङ्कल्पं शुद्धं कामविवर्जितम् ||1||

मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः | बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम् ||2||


यतो निर्विषयस्यास्य मनसो मुक्तिरिष्यते | अतो निर्विषयं नित्यं मनः कार्यं मुमुक्षुणा ||3||

निरस्तनिषयासङ्गं सन्निरुद्धं मनो हृदि | यदाऽऽयात्यात्मनो भावं तदा तत्परमं पदम् ||4||


तावदेव निरोद्धव्यं यावद्धृति गतं क्षयम् | एतज्ज्ञानं च ध्यानं च शेषो न्यायश्च विस्तरः ||5||

नैव चिन्त्यं न चाचिन्त्यं न चिन्त्यं चिन्त्यमेव च | पक्षपातविनिर्मुक्तं ब्रह्म संपद्यते तदा ||6||


स्वरेण सन्धयेद्योगमस्वरं भावयेत्परम् | अस्वरेणानुभावेन नाभावो भाव इष्यते ||7||

तदेव निष्कलं ब्रह्म निर्विकल्पं निरञ्जनम् | तदब्रह्माहमिति ज्ञात्वा ब्रह्म सम्पद्यते ध्रुवम् ||8||


निर्विकल्पमनन्तं च हेतुद्याष्टान्तवर्जितम् । अप्रमेयमनादिं च यज्ञात्वा मुच्यते बुधः ||9||

न निरोधो न चोत्पत्तिर्न बद्धो न च साधकः । न मुमुक्षुर्न वै मुक्त इत्येषा परमार्थता ||10||


एक एवाऽऽत्मा मन्तव्यो जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिषु । स्थानत्रयव्यतीतस्य पुनर्जन्म न विद्यते ||11||

एक एव हि भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैव दृष्यते जलचन्द्रवत् ||12||


घटसंवृतमाकाशं नीयमानो घटे यथा । घटो नीयेत नाऽकाशः तद्धाज्जीवो नभोपमः ||13||

घटवद्विविधाकारं भिद्यमानं पुनः पुनः ।तद्भेदे न च जानाति स जानाति च नित्यशः ||14||


शब्दमायावृतो नैव तमसा याति पुष्करे । भिन्नो तमसि चैकत्वमेक एवानुपश्यति ||15||

शब्दाक्षरं परं ब्रह्म तस्मिन्क्षीणे यदक्षरम् । तद्विद्वानक्षरं ध्यायेच्द्यदीच्छेछान्तिमात्मनः ||16||

द्वे विद्ये वेदितव्ये तु शब्दब्रह्म परं च यत् । शब्दब्रह्माणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति ||17||

ग्रन्थमभ्यस्य मेधावी ज्ञानवीज्ञानतत्परः । पलालमिव धान्यार्यी त्यजेद्ग्रन्थमशेषतः ||18||


गवामनेकवर्णानां क्षीरस्याप्येकवर्णता । क्षीरवत्पष्यते ज्ञानं लिङ्गिनस्तु गवां यथा ||19||

घृतमिव पयसि निगूढं भूते भूते च वसति विज्ञानम् । सततं मनसि मन्थयितव्यं मनु मन्थानभूतेन  ||20||


ज्ञाननेत्रं समाधाय चोद्धरेद्वह्निवत्परम् । निष्कलं निश्चलं शान्तं तद्ब्रह्माहमिति स्मृतम् ||21||

सर्वभूताधिवासं यद्भूतेषु च वसत्यपि ।सर्वानुग्राहकत्वेन तदस्म्यहं वासुदेवः तदस्म्यहं वासुदेव इति ||22||