बुधवार, 6 मई 2020

शनि ने राजा दशरथ को दिया वरदान, जो आएगा आपके काम |
प्राणियों की जन्मकुंडली में जब शनिदेव की साढ़ेसाती, लघु कल्याणी ढैया, मारकदशा, महादशा, अंतर्दशा, प्रत्यंतर दशा, सूक्ष्मदशा आदि का
आरंभ होता है तो वह मानसिक, सामाजिक, स्वास्थ्य एवं आर्थिक परेशानियों से अपने आप को घिरा हुआ पाता है | इसीके फलस्वरूप वह
इधर-उधर भटकता हुआ इनसे बचने के लिए नाना प्रकार के प्रयोजन करने लगता है | शनिदेव की इनसभी स्थितियों एवं दशाओं से बचने
के लिए प्राणी यदि स्वयं दशरथ जी द्वारा की गयी शनिस्तुति का पाठ करे तो वह इनके अशुभ प्रभावों बचा रहेगा, इस शनिस्तुति की रचना
के पीछे सुंदर घटना छिपी हुई है |
अयोध्या पर शनि संकट
पौराणिक कथा है कि महाराजा दशरथ के काल में जब शनिदेव कृतिका नक्षत्र के अंतिम चरण का भोग संपन्न करके रोहिणी नक्षत्र में प्रवेश
करने वाले थे तो अयोध्या के सभी ज्योतिषविद्वान चिंतित हो उठे क्योंकि, शनिदेव की ऐसी गोचर गति ‘शकट योग’ का निर्माण करती है,
जिसके परिणाम स्वरूप प्राणियों के लिए पृथ्वी पर दुर्भिक्ष और महामारी का प्रकोप बढ़ जाता है | सभी ज्योतिषियों ने अयोध्या पर आने वाले
इस 'शनिशकट' संकट के विषय में राजा दशरथ को अवगत कराया |
दशरथ गुरु वशिष्ठ संवाद
राजा गुरुदेव वशिष्ठ को बुलाकर इसका उपाय पूछा तो वशिष्ठ जी ने कहा, यह योग ब्रह्मा आदि से भी असाध्य है इसका कोई परिहार नहीं
कर सकता | गुरुदेव की ऐसी वाणी सुनकर राजादशरथ मन की गति से चलने वाले अपने दिव्यरथ पर बैठकर धनुष बाण तथा दिव्यास्त्रों सहित
सूर्य से भी ऊपर नक्षत्र मंडल में गए और वहां रोहिणी नक्षत्र के पृष्ठभाग में स्थित होकर शनिदेव को लक्ष्य बनाकर धनुष पर महाशक्तिशाली
'संहारास्त्र' को चढ़ाया तो यह देखकर शनिदेव भी अंदर से डर गए |
शनिदेव ने दिया दशरथ को वरदान
अपने भय को छुपाते हुए बोले कि हे राजन ! मैं तुम्हारे तप, पौरुष और दिव्यसाहस से अति प्रसन्न हूं मैं जिसकी तरफ भी देखता हूं वह देव,
दानव कोई भी हो भस्म हो जाता है, पर मैं तुमसे अति प्रसन्न हूं तुम्हारी जो इच्छा हो वर मांग लो | शनिदेव के ऐसा कहने पर दशरथ जी ने
कहा कि, हे शने ! जबतक पृथ्वी, सूर्य, चंद्र आदि हैं आप कभी रोहिणी का भेदन न करें | शनिदेव ने ये वर दे दिया और कहा, कोई और भी वर
मांग लो ! तो दशरथ जी ने कहा कि आप ‘शकट भेद’ कभी न करें, शनिदेव ने यह भी वरदान दे दिया, तब महाराज दशरथ हाथ जोड़कर शनि
की इस प्रकार स्तुति करने लगे-
कृष्णाय नीलाय शितिकण्ठनिभाय च | नम: कालाग्निरूपाय कृतान्ताय च वै नम: ||
नमो निर्मांस देहाय दीर्घश्मश्रुजटाय च | नमो विशालनेत्राय शुष्कोदर भयाकृते ||
नम: पुष्कलगात्राय स्थूलरोम्णेऽथ  वै नम: | नमो दीर्घायशुष्काय कालदष्ट्र नमोऽस्तुते ||
नमस्ते कोटराक्षाय दुर्निरीक्ष्याय वै नम: | नमो घोराय रौद्राय भीषणाय कपालिने ||
नमस्ते सर्वभक्षाय बलीमुख नमोऽस्तुते | सूर्यपुत्र नमस्तेऽस्तु भास्करे भयदाय च ||
अधोदृष्टे: नमस्तेऽस्तु संवर्तक नमोऽस्तुते | नमो मन्दगते तुभ्यं निस्त्रिंशाय नमोऽस्तुते ||
तपसा दग्धदेहाय नित्यं  योगरताय च | नमो नित्यं क्षुधार्ताय अतृप्ताय च वै नम: ||
ज्ञानचक्षुर्नमस्तेऽस्तु कश्यपात्मज  सूनवे | तुष्टो ददासि वै राज्यं रुष्टो हरसि तत्क्षणात् ||
देवासुरमनुष्याश्च  सिद्धविद्याधरोरगा: | त्वया विलोकिता: सर्वे नाशं यान्ति समूलत: ||
प्रसादं कुरु  मे  देव वराहोर्ऽहमुपागत | एवं स्तुतस्तद  सौरिग्र्रहराजो महाबल: ||
जिनके शरीर का वर्ण कृष्णनील तथा भगवान शंकर के समान है उन शनिदेव को नमस्कार है | जो जगत के लिए कालाग्नि एवं कृतांत रूप हैं 
उन शनैश्चर को बारंबार नमस्कार है | जिनका शरीर कंकाल है तथा जिनकी दाढ़ी मूंछ और जटा बढ़ी हुई है उन शनिदेव को प्रणाम है | जिनके
बड़े-बड़े नेत्र पीठ में सटा हुआ पेट और भयानक आकार है, उन शनिदेव को नमस्कार है | जिनके शरीर का ढांचा फैला हुआ है जिनके शरीर के
रोम बहुत मोटे हैं जो लंबे चौड़े किंतु सूखे शरीर वाले हैं तथा जिनकी दाढ़ें कालरूप हैं, उन शनिदेव को बारंबार प्रणाम है | हे शनि ! आपके नेत्र
खोखले के समान गहरे हैं, आपकी और देखना कठिन है, आप घोर, रौद्र, भीषण और विकराल हैं आपको नमस्कार है | बलीमुख ! आप सबकुछ
भक्षण करने वाले हैं आपको नमस्कार है | सूर्यनंदन ! भास्करपुत्र ! अभय देने वाले देवता आपको प्रणाम है | नीचे की ओर दृष्टि रखने वाले
शनिदेव आपको नमस्कार है संवर्तक आपको प्रणाम है | मंदगति से चलने वाले शनैश्चर आप का प्रतीक तलवार के समान है | आपको बारम्बार 
प्रणाम है | आपने तपस्या से अपने देह को दग्ध कर दिया है आप सदा योगाभ्यास में तत्पर भूख से आतुर और अतृप्त रहते हैं | आपको सदा
सर्वदा प्रणाम है | ज्ञाननेत्र ! आपको नमस्कार है | कश्यपनंदन सूर्य के पुत्र शनिदेव ! आपको नमस्कार है | आप संतुष्ट होने पर राज्य दे देते
हैं और रुष्ट होने पर उसे तत्क्षण हर लेते हैं | देवता, मनुष्य सिद्ध, विद्याधर असुर और नाग ये सब आपकी दृष्टि पड़ने पर समूल नष्ट हो
जाते हैं | हे देव ! मुझ पर प्रसन्न होइये मैं वर पाने के योग्य हूँ और आपकी शरण में हूं |
शनिदेव का तीसरा वरदान- राजा दशरथ की ऐसी स्तुति से शनिदेव अति प्रसन्न हुए और बोले ! कि राजन पुनः कोई वर मागों | दशरथ ने
कहाकि, प्रभु आप किसी भी पृथ्वी वासी को पीड़ा न पहुंचाएं, तो शनिदेव ने कहा राजन ! यह वर असंभव है क्योंकि, जिवों के उनके शुभ-अशुभ
कर्मों के अनुसार सुख-दुख देने के लिए ही ग्रहों की नियुक्ति है किंतु, मैं तुम्हें यह वर देता हूं कि जो तुम्हारे द्वारा रचित इस स्तुति को पढ़ेगा
वह मेरी पीड़ा से मुक्त हो जायेगा | इस प्रकार शनि देव की इस स्तुति का पाठ करके आप भी शानिजन्य दोषों से मुक्त हो सकते हैं |

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