गुरुवार, 18 मार्च 2021

प्रश्नोपनिषद् 'ब्राह्मणभाग'

 तिस्रो मात्रा मृत्युमत्यः प्रयुक्ता अन्योन्यसक्ता अनविप्रयुक्ताः |

क्रियासु बाह्याभ्यन्तरमध्यमासु सम्यक्प्रयुक्तासु न कम्पते ज्ञः ||

स्रोत- प्रश्नोपनिषद् 'ब्राह्मणभाग' 

संकेत:

प्रस्तुत मंत्र अथर्ववेदीय प्रश्नोपनिषद् 'ब्राह्मणभाग' के पंचमप्रश्न से लिया गया है जिसमें शिबिपुत्र 

सत्यकाम के द्वारा महामुनि पिप्पलाद से प्रश्न किया गया है कि भगवन ! 'अक्षर ब्रह्म' ओंकार 

की तीनों मात्राओं 'अकार, उकार तथा मकार की विशेषता क्या है ? इनकी उपासना से क्या फल 

मिलता है |

मंत्रार्थ:

ओंकार की तीनों मात्राएँ पृथक पृथक रहने पर मृत्युसे युक्त हैं तभी इन्हें मृत्युमती भी कहा गया है | 

वै ध्यान क्रिया में प्रयुक्त होती हैं और परस्पर सम्बद्ध तथा अनविप्रयुक्ता (जिनका विपरीत प्रयोग 

न किया गया हो ऐसे) हैं | इस प्रकार बाह्य (जाग्रत) आभ्यंतर (सुषुप्ति) और मध्यम (स्वप्नस्थानीय) 

क्रियाओं में उनका सम्यक प्रयोग किया जाने पर ज्ञाता पुरुष विचलित नहीं होता |

तात्पर्य:

अक्षर ब्रह्म ओंकार में प्रयुक्त होने वाली तीनों मात्राएँ 'अकार, उकार और मकार' मृत्यु से परे नहीं हैं |

इनकी भी मृत्यु होती है | वै आत्मा की ध्यानक्रियाओं में प्रयुक्त होती हैं और एक दुसरे से सम्बद्ध हैं 

इसीलिए उन्हें 'अनविप्रयुक्ता' कहा गया है | बाह्य, आभ्यंतर और मध्यम तीन क्रियाओं में योगी 

(ओंकार की मात्राओं के विभाग को जानने वाला साधक) विचलित नहीं होता क्योंकि, सर्वात्मभूत 

और ओंकारस्वरूपता को प्राप्त हुआ विद्वान् विषयासक्त से परे है |



कठोपनिषद्

  पराञ्चि खानि व्यतृणत्स्वयम्भूस्तस्मात् पराङ्पश्यति नान्तरात्मन् |

कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मान मैक्षदावृत्तचक्षुर मृतत्वमिच्छन् ||

पराचः कामाननुयन्ति बालास्ते मृत्योर्यन्ति विततस्य पाशम् |

अथ धीरा अमृतत्वं विदित्वा ध्रुवमध्रुवेष्विह न प्रार्थयन्ते ||

स्रोत- कठोपनिषद् 

संकेत- 

प्रस्तुत मंत्र कठोपनिषद् के द्वितीय अध्याय की प्रथमा वल्ली से लिया गया है | मंत्र के द्वारा यमदेव 

जी वाजश्रवस के पुत्र नचिकेता को आत्मज्ञान के मार्ग में आने वाली बाधाओं तथा विवेकी और अविवेकी 

में क्या अन्तर होता है इसका ज्ञानामृत पिला रहे हैं |

मंत्रार्थ- 

परब्रह्म परमेश्वर ने चक्षुरादि सभी इन्द्रियों को बहिर्मुखी प्रवृत्ति वाला बनाया है, जिसके द्वारा जीव 

बाह्यबिषयों को ही देख पाता है, अन्तरात्माको नहीं | जिसने अमरत्व की इच्छा करते हुए अपनी 

इन्द्रियों को वशीभूत कर लिया हो, ऐसा धीरपुरुष ही आत्मसाक्षात्कार कर पाता है | अल्पज्ञपुरुष 

बाह्यभोगों के पीछे लगे रहते हैं तभी वै मृत्युके सर्वत्र फैले हुए पाश में पड़ते हैं | किन्तु विवेकी 

पुरुष अमरत्वको परमसत्य जानकर संसारके अनित्य पदार्थोंमेंसे किसी की भी इच्छा नहीं करते |

तात्पर्य- 

जो इन्द्रियाँ बहिर्मुख होकर ही शब्दादि विषयों को प्रकाशित करने के लिए प्रवृत हुआ करती हैं | 

वै इन्द्रियाँ स्वभाव से ही ऐसी हैं इसलिए उनका हनन कर दिया गया है | इनका हनन करने 

वाला परब्रह्म परमेश्वर स्वतः ही सर्वदा स्वतंत्र रहता है | अविवेकी पुरुष काम्यविषयों के पीछे 

लगे रहते हुए निरंतर जन्म-मरण, जरा और रोग आदि बहुत से अनर्थसमूह को प्राप्त होते हैं | 

ब्रह्मवेत्ता लोग इस अनर्थप्राय संसार के सम्पूर्ण अनित्य पदार्थों में से किसी की भी अभिलाषा 

नहीं करते क्योंकि वै सब तो परमात्मा प्राप्ति के मार्ग की बाधाएं हैं |





माण्डूक्योपनिषद्

 ओंकारं पादशो विद्यात्पादा मात्रा न संशयः | ओंकारं पादशो ज्ञात्वा न किंचदपि चिन्तयेत् |

युञ्जीत प्रणवे चेतः प्रणवो ब्रह्म निर्भयम् | प्रणवे नित्ययुक्तस्य न भयं विद्यते क्वचित् ||

स्रोत- माण्डूक्योपनिषद् 

संकेत- 

प्रस्तुत मंत्र माण्डूक्योपनिषद् के प्रथम अध्याय से लिया गया है जिसमें समस्त ब्रह्मांड में निर्भयब्रह्म 'ॐ' की व्यापकता


और उसी की साधना करने का संकेत किया गया है | ओंकारोपासना के पश्च्यात पुनः किसी उपासना की आवश्यकता नहीं रहती | वह आत्मा अक्षरदृष्टि से ओंकार ही है | पाद ही मात्रा है और मात्रा ही पाद है, वै मात्रा अकार, उकार और मकार हैं |

मंत्रार्थ- 

ओंकार को एक-एक पाद करके जाने; पाद ही मात्राएँ हैं इसमें संदेह नहीं | इसप्रकार ओंकार को पाद्क्रम से जानकर कुछ भी चिंतन न करें | चित्त को ओंकार में समाहित करे; ओंकार निर्भय ब्रह्मपद है | ओंकारमें नित्य समाहित रहने वाले पुरुषको कहीं भी भय नहीं होता |

तात्पर्य-

निर्भयब्रह्म 'ॐ' को ही प्रणव कहते हैं इनमें पाद ही मात्राएँ हैं और मात्राएँ ही पाद हैं | उस परमार्थस्वरूप ओंकार में ही चित्त को समाहित करे, क्योंकि ओंकार ही निर्भय ब्रह्म है | उसमें नित्य समाहित रहने वाले पुरुषको कहीं भी भय नहीं होता, वह परमज्ञानी हो जाता है और ज्ञानी कहीं भी भय को प्राप्त नहीं होता | इसप्रकार ओंकार का ज्ञान हो जाने पर मनुष्य कृतार्थ हो जाता है, वह लौकिक पदार्थों के मोहपाश से भी मुक्त हो जाता है |

श्वेताश्वतरोपनिषद्

 विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्पात्‌ |

सं बाहुभ्यां धमति संपतत्रैर्द्यावाभूमी जनयन्देव एकः ||

स्रोत- श्वेताश्वतरोपनिषद्

संकेत-

प्रस्तुत मंत्र श्वेताश्वतरोपनिषद् के तृतीय अध्याय से लिया गया है | मंत्र के द्वारा परमेश्वर से जगत् की सृष्टि

के प्रतिपादन और उनकी विराट रचना के विषय में ध्यानाकर्षण किया गया है |

मंत्रार्थ-

वह परब्रह्म परमेश्वर सब ओर नेत्रोंवाला, सब ओर मुखोंवाला सब ओर भुजाओंवाला और सब ओर पैरोंवाला

है | वह एकमात्र देव प्रकाशमय परमात्मा अंतरिक्षलोक और पृथ्वी की रचना करता हुआ वहां के मनुष्य पक्षी

आदि प्राणियोंको दो भुजाओं और पैरों तथा पंखों से युक्त करता है |

तात्पर्य-

समस्त प्राणियों के चक्षु (नेत्र) परमात्मा के ही हैं | इसीलिए यह विश्वचक्षु है | अतः उनमें अपनी इच्छामात्र से

ही सर्वत्र चक्षु यानी रुपादि को ग्रहण करने का सामर्थ्य है | वह मनुष्यादिको भुजाओं से युक्त करता है और

चलने का साधन यानी पैरों से भी युक्त करता है और यही उन्हें पतन से बचाने वाला भी है | यही एकमात्र

परमेश्वर ने द्युलोक और पृथ्वी की विराट सृष्टि की, तभी उसे जगत रचियता अथवा नियंता भी कहा जाता है |


मुन्डकोपनिषद्' अथर्व वेद

 यं यं लोकं मनसा संविभाति विशुद्धसत्त्वः कामयते यांश्च कामान्‌ |

तं तं लोकं जयते तांश्च कामां-स्तस्मादात्मज्ञं ह्यर्चयेद् भूतिकामः ||

स्रोत- अर्थववेदीय 'मुन्डकोपनिषद्'

संकेत-

प्रस्तुत मंत्र अथर्ववेद के अंतर्गत आने वाले 'मुन्डकोपनिषद्' के तृतीय 'मुण्डक' से लिया गया है | मंत्र के द्वारा आत्मा की असीमित शक्ति


और वैभव तथा उसकी उपयोगिता के विषय में बताया गया है | मंत्र में ऐसा दिव्यपुरुष जिसके लिए 'आत्मवत सर्वभूतेषु' अर्थात- जो सभीजीवों में स्वयं को देखता हो उसी की आराधना करने का संकेत किया गया है |

मंत्रार्थ-

जिस मनुष्य का अंतर्मन से विशुद्ध हो चुका हो, वह जिस जिस लोक की भी कामना करता है उसे जीत लेता है | जिन जिन भोगों को भीचाहता है उसे प्राप्त कर लेता है | जिस लोक में भी जाने की इच्छा करता है उसी लोक को जाता है | इसलिए सांसारिक भोगों तथा ऐश्वर्यकी इच्छा करने वाले पुरुष ऐसे आत्मज्ञानी की ही पूजा करे |

तात्पर्य-

जिसके पाँचों मनोविकारक्लेश अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अहंकार क्षीण हो गये हैं अर्थात जो विशुद्धसत्व हो गया है वह निर्मलचित्तवाला आत्मवेत्ता जिस लोक का मन से संकल्प करता है उसे प्राप्त कर लेता है | जिस किसी अन्य को भी वह लोक प्राप्त कराना चाहता हैउसे प्राप्त करा देता है | वह जिन जिन भोगों को भी चाहता है अथवा किसी अन्य को यह भोग प्राप्त हो, ऐसी अभिलाषा करता है उसे भीसंकल्पित उन भोगों को प्राप्त करा देता है | इसलिए समस्त भोगों एवं ऐश्वर्यों की कामना करने वाले पुरुष को उस विशुद्धचित्त आत्मज्ञानीका ह्रदयभाव से पूजन-सत्कार करना चाहिए क्योंकि, ऐसे दिव्यात्मा सत्यसंकल्प होते हैं पूजनीय होते हैं 

ईशावास्योपनिषद्

 ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् | 


तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ||

स्रोत- ईशावास्योपनिषद्   

ब्रह्मविद्या प्राप्ति के आदिस्रोत को उपनिषद् कहते हैं जो हमें ब्रह्म अथवा आत्मा के यथार्थस्वरूप का बोध कराने में सहायक सिद्ध होती हैं | प्रस्तुतमंत्र ईशावास्योपनिषद् से लियागया है जिसमें सर्वत्र भगवतदृष्टि का उपदेश दिया गयाहै | इसी उपनिषद् में ईश द्वारा आत्मा के स्वरूप का दिव्य वर्णन तथा भक्ति के सोपान ज्ञानमार्ग और कर्ममार्ग कागूढ़ज्ञान है  |

संकेत-

यह मंत्र परमेश्वर के अनंत आकार का बोध कराता है | चराचर जगत में जो कुछ भी है वह सब परमेश्वर द्वारा आच्छादानीय है, उन्हीं के द्वारा निर्मित हुआ है | सूक्ष्म से लेकर विशालतम, जो कुछ भी है वह सब ईश्वर के द्वारादिया गया, ईश्वर का ही और ईश्वर स्वरूप ही है | इसलिए जो कुछ भी दृश्य-अदृश्य है सब उन्हीं परमेश्वर का ही है उन्हीं की कृपा से तुम्हें मिला हुआ है अतः तुम उन पदार्थों पर 'जो कि तुम्हारा नहीं है' अपना अधिकार न जताते हुए त्यागभावसे उसका उपभोग करते हुए नियमों का पालन करो | लालच के वशीभूत होकर किसी और के धन की इच्छा न करो |

तात्पर्य-

सबपर शासन करने वाला ईश परमेश्वर परमात्मा है वही सब जीवों का आत्मा होकर अंतर्यामीरूप से ही सबपर शासन करताहै | ईश्वर तुममे है तुम ईश्वर में हो, यही परमसत्य है | वासनाओं से रहित होकर व्यर्थ की  आकांक्षा न करो | किसी के भी धन की इच्छा न करो  क्योंकि, धन किसी एक का नहीं सब परमेश्वर का है |  सब आत्मा से उत्पन्न हुआ,आत्मरूप ही होने के कारण मिथ्यापदार्थविषयक आकांक्षा अर्थहीन है  | जो ईश्वर का है अतः तुम्हारा नहीं परन्तु, तुम उसका अनाधिकारभाव से उपभोग कर सकते हो क्योंकि, ईश्वर का अंश आत्मा तुम्हारे भीतर विद्यमान है | जो ऐसा मान लेता है उसका त्याग पर अधिकार हो जाता है | परमेश्वर भी आत्मा ही है इस प्रकार की ईश्वरीय भावना से आसक्तिभाव समाप्त हो जाता है और सभी विषय परित्यक्त हो जाते हैं |