गुरुवार, 18 मार्च 2021

ईशावास्योपनिषद्

 ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् | 


तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ||

स्रोत- ईशावास्योपनिषद्   

ब्रह्मविद्या प्राप्ति के आदिस्रोत को उपनिषद् कहते हैं जो हमें ब्रह्म अथवा आत्मा के यथार्थस्वरूप का बोध कराने में सहायक सिद्ध होती हैं | प्रस्तुतमंत्र ईशावास्योपनिषद् से लियागया है जिसमें सर्वत्र भगवतदृष्टि का उपदेश दिया गयाहै | इसी उपनिषद् में ईश द्वारा आत्मा के स्वरूप का दिव्य वर्णन तथा भक्ति के सोपान ज्ञानमार्ग और कर्ममार्ग कागूढ़ज्ञान है  |

संकेत-

यह मंत्र परमेश्वर के अनंत आकार का बोध कराता है | चराचर जगत में जो कुछ भी है वह सब परमेश्वर द्वारा आच्छादानीय है, उन्हीं के द्वारा निर्मित हुआ है | सूक्ष्म से लेकर विशालतम, जो कुछ भी है वह सब ईश्वर के द्वारादिया गया, ईश्वर का ही और ईश्वर स्वरूप ही है | इसलिए जो कुछ भी दृश्य-अदृश्य है सब उन्हीं परमेश्वर का ही है उन्हीं की कृपा से तुम्हें मिला हुआ है अतः तुम उन पदार्थों पर 'जो कि तुम्हारा नहीं है' अपना अधिकार न जताते हुए त्यागभावसे उसका उपभोग करते हुए नियमों का पालन करो | लालच के वशीभूत होकर किसी और के धन की इच्छा न करो |

तात्पर्य-

सबपर शासन करने वाला ईश परमेश्वर परमात्मा है वही सब जीवों का आत्मा होकर अंतर्यामीरूप से ही सबपर शासन करताहै | ईश्वर तुममे है तुम ईश्वर में हो, यही परमसत्य है | वासनाओं से रहित होकर व्यर्थ की  आकांक्षा न करो | किसी के भी धन की इच्छा न करो  क्योंकि, धन किसी एक का नहीं सब परमेश्वर का है |  सब आत्मा से उत्पन्न हुआ,आत्मरूप ही होने के कारण मिथ्यापदार्थविषयक आकांक्षा अर्थहीन है  | जो ईश्वर का है अतः तुम्हारा नहीं परन्तु, तुम उसका अनाधिकारभाव से उपभोग कर सकते हो क्योंकि, ईश्वर का अंश आत्मा तुम्हारे भीतर विद्यमान है | जो ऐसा मान लेता है उसका त्याग पर अधिकार हो जाता है | परमेश्वर भी आत्मा ही है इस प्रकार की ईश्वरीय भावना से आसक्तिभाव समाप्त हो जाता है और सभी विषय परित्यक्त हो जाते हैं |


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