गुरुवार, 1 अप्रैल 2021

कठोपनिषद्

 सूर्यो यथा सर्वलोकस्य चक्षुर्नलिप्यते चाक्षुषैर्बह्यिदोषैः |

एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा न लिप्यते लोकदुःखेन बाह्यः ||

स्रोत- कठोपनिषद् 

संकेत- 

प्रस्तुत मंत्र कठोपनिषद् द्वितीय अध्याय के द्वितीया वल्ली से लिया गया है | 

मंत्र के द्वारा दुर्विज्ञेय ब्रह्मतत्वका प्रकारान्तर से जानने के क्रम में जगतात्मा 

सूर्य को लेकर ब्रह्मनिरूपण किया गया है जिसमें आत्मा की असंगता के विषय 

में बताया गया है कि अंतरात्मा केवल दृष्टा है वह संसार के बाह्य भोगों से दूर 

ही रहता है, उसमें लिप्त नहीं होता | 

मंत्रार्थ- 

जिसप्रकार सम्पूर्ण लोकों का नेत्र होकर भी सूर्य नेत्रसंबंधी बाह्यदोषों से लिप्त नहीं होता उसी 

प्रकार सम्पूर्ण भूतों का एक ही अन्तरात्मा संसार के दुःख से लिप्त नहीं होता, बल्कि उससे 

बाहर ही रहता है वह दृष्टा मात्र है |

तात्पर्य- 

जिसप्रकार सूर्य अपने प्रकाश से लोक का उपकार करता हुआ अर्थात मल-मूत्र आदि अपवित्र वस्तुओं 

को प्रकाशित करने के कारण उन्हें देखने वाले समस्त लोकों का नेत्ररूप होकर भी अपवित्र पदार्थादिके 

देखने से प्राप्त हुए आध्यात्मिक पापदोष तथा अपवित्र संसर्ग से होने वाले बाह्यदोषों से लिप्त नहीं 

होता, उसीप्रकार सम्पूर्ण भूतों का एक ही अंतरात्मा लोक के दुःख से लिप्त नहीं होता, बल्कि उससे 

बाहर ही रहता है | संसारी अपने आत्मा में आरोपित अविद्या के कारण ही कामना और कर्म जनित 

दुखों का अनुभव करता है |


तैत्तिरीयोपनिषद्

 अन्नं ब्रह्मेति व्यजानात्‌ | अन्नाद्‌ध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते | 

अन्नेन जातानि जीवन्ति | अन्नं प्रयन्त्यभिसं विशन्तीति | तद्विज्ञाय 

पुनरेव वरुणं पितरमुपससार | अधीहि भगवो ब्रह्मेति | तं होवाच | तपसा 

ब्रह्म विजिज्ञासस्व | तपो ब्रह्मेति | स तपोऽतप्यत | स तपस्तप्त्वा ||

स्रोत- तैत्त्रियोपनिषद् 

संकेत-

प्रस्तुत मंत्र तैत्त्रियोपनिषद् भृगुवल्ली के द्वितीय अनुवाक से लिया गया है | मंत्र के 

द्वारा बताया गया है कि भृगु अपने पिता वरुण के पास गए और 'ब्रह्मविद्याविषयक'

प्रश्न किया, तथा 'अन्न ही ब्रह्म है' ऐसा जानलेने के पश्च्यात भी संशयग्रस्त होनेपर 

पुनः उन्हींके उपदेश से तप करने के लिए प्रस्थान किए, इसका संकेत किया गया है |

मंत्रार्थ- 

अन्न ही ब्रह्म है क्योंकि अन्न से ही सब प्राणी उत्पन्न होते हैं | उत्पन्न होने पर अन्न 

से ही जीवित रहते हैं तथा महाप्रयाण करते समय भी अन्न में ही लीन होते हैं | ऐसा 

जानकर भी भृगु पुनः अपने पिता वरुण के पास आये और निवेदन किया कि भगवन ! मुझे 

ब्रह्म का उपदेश कीजिये | वरुण ने कहा पुत्र ! ब्रह्म को तप के द्वारा जानने की इच्छा 

करो, तप ही ब्रह्म है ! तब भृगु ने तपके लिए प्रस्थान किया |

तात्पर्य-

अन्न ही ब्रह्म हैं क्योंकि अन्न में ही प्राण प्रतिष्ठित रहते हैं | यह सृष्टि अन्न के बगैर 

संभव नहीं | अन्न के द्वारा ही प्राणी जन्म लेता है | अन्न से ही जीवित भी रहता है | 

अन्न के द्वारा ही यज्ञ संभव है | मृत्युपश्च्यात प्राणी अन्न में ही लीन हो जाता है | 

यह अन्न ही ब्रह्म है, ऐसा जान लेने के बाद भी भृगु संशयग्रस्त होकर अपने पिता 

वरुण के पास आये और 'ब्रह्मविद्याविषयक' ज्ञान के लिए पुनः निवेदन किया |