यं यं लोकं मनसा संविभाति विशुद्धसत्त्वः कामयते यांश्च कामान् |
तं तं लोकं जयते तांश्च कामां-स्तस्मादात्मज्ञं ह्यर्चयेद् भूतिकामः ||
स्रोत- अर्थववेदीय 'मुन्डकोपनिषद्'
संकेत-
प्रस्तुत मंत्र अथर्ववेद के अंतर्गत आने वाले 'मुन्डकोपनिषद्' के तृतीय 'मुण्डक' से लिया गया है | मंत्र के द्वारा आत्मा की असीमित शक्ति
और वैभव तथा उसकी उपयोगिता के विषय में बताया गया है | मंत्र में ऐसा दिव्यपुरुष जिसके लिए 'आत्मवत सर्वभूतेषु' अर्थात- जो सभीजीवों में स्वयं को देखता हो उसी की आराधना करने का संकेत किया गया है |
मंत्रार्थ-
जिस मनुष्य का अंतर्मन से विशुद्ध हो चुका हो, वह जिस जिस लोक की भी कामना करता है उसे जीत लेता है | जिन जिन भोगों को भीचाहता है उसे प्राप्त कर लेता है | जिस लोक में भी जाने की इच्छा करता है उसी लोक को जाता है | इसलिए सांसारिक भोगों तथा ऐश्वर्यकी इच्छा करने वाले पुरुष ऐसे आत्मज्ञानी की ही पूजा करे |
तात्पर्य-
जिसके पाँचों मनोविकारक्लेश अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अहंकार क्षीण हो गये हैं अर्थात जो विशुद्धसत्व हो गया है वह निर्मलचित्तवाला आत्मवेत्ता जिस लोक का मन से संकल्प करता है उसे प्राप्त कर लेता है | जिस किसी अन्य को भी वह लोक प्राप्त कराना चाहता हैउसे प्राप्त करा देता है | वह जिन जिन भोगों को भी चाहता है अथवा किसी अन्य को यह भोग प्राप्त हो, ऐसी अभिलाषा करता है उसे भीसंकल्पित उन भोगों को प्राप्त करा देता है | इसलिए समस्त भोगों एवं ऐश्वर्यों की कामना करने वाले पुरुष को उस विशुद्धचित्त आत्मज्ञानीका ह्रदयभाव से पूजन-सत्कार करना चाहिए क्योंकि, ऐसे दिव्यात्मा सत्यसंकल्प होते हैं पूजनीय होते हैं
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