विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्पात् |
सं बाहुभ्यां धमति संपतत्रैर्द्यावाभूमी जनयन्देव एकः ||
स्रोत- श्वेताश्वतरोपनिषद्
संकेत-
प्रस्तुत मंत्र श्वेताश्वतरोपनिषद् के तृतीय अध्याय से लिया गया है | मंत्र के द्वारा परमेश्वर से जगत् की सृष्टि
के प्रतिपादन और उनकी विराट रचना के विषय में ध्यानाकर्षण किया गया है |
मंत्रार्थ-
वह परब्रह्म परमेश्वर सब ओर नेत्रोंवाला, सब ओर मुखोंवाला सब ओर भुजाओंवाला और सब ओर पैरोंवाला
है | वह एकमात्र देव प्रकाशमय परमात्मा अंतरिक्षलोक और पृथ्वी की रचना करता हुआ वहां के मनुष्य पक्षी
आदि प्राणियोंको दो भुजाओं और पैरों तथा पंखों से युक्त करता है |
तात्पर्य-
समस्त प्राणियों के चक्षु (नेत्र) परमात्मा के ही हैं | इसीलिए यह विश्वचक्षु है | अतः उनमें अपनी इच्छामात्र से
ही सर्वत्र चक्षु यानी रुपादि को ग्रहण करने का सामर्थ्य है | वह मनुष्यादिको भुजाओं से युक्त करता है और
चलने का साधन यानी पैरों से भी युक्त करता है और यही उन्हें पतन से बचाने वाला भी है | यही एकमात्र
परमेश्वर ने द्युलोक और पृथ्वी की विराट सृष्टि की, तभी उसे जगत रचियता अथवा नियंता भी कहा जाता है |
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