ओंकारं पादशो विद्यात्पादा मात्रा न संशयः | ओंकारं पादशो ज्ञात्वा न किंचदपि चिन्तयेत् |
युञ्जीत प्रणवे चेतः प्रणवो ब्रह्म निर्भयम् | प्रणवे नित्ययुक्तस्य न भयं विद्यते क्वचित् ||
स्रोत- माण्डूक्योपनिषद्
संकेत-
प्रस्तुत मंत्र माण्डूक्योपनिषद् के प्रथम अध्याय से लिया गया है जिसमें समस्त ब्रह्मांड में निर्भयब्रह्म 'ॐ' की व्यापकता
और उसी की साधना करने का संकेत किया गया है | ओंकारोपासना के पश्च्यात पुनः किसी उपासना की आवश्यकता नहीं रहती | वह आत्मा अक्षरदृष्टि से ओंकार ही है | पाद ही मात्रा है और मात्रा ही पाद है, वै मात्रा अकार, उकार और मकार हैं |
मंत्रार्थ-
ओंकार को एक-एक पाद करके जाने; पाद ही मात्राएँ हैं इसमें संदेह नहीं | इसप्रकार ओंकार को पाद्क्रम से जानकर कुछ भी चिंतन न करें | चित्त को ओंकार में समाहित करे; ओंकार निर्भय ब्रह्मपद है | ओंकारमें नित्य समाहित रहने वाले पुरुषको कहीं भी भय नहीं होता |
तात्पर्य-
निर्भयब्रह्म 'ॐ' को ही प्रणव कहते हैं इनमें पाद ही मात्राएँ हैं और मात्राएँ ही पाद हैं | उस परमार्थस्वरूप ओंकार में ही चित्त को समाहित करे, क्योंकि ओंकार ही निर्भय ब्रह्म है | उसमें नित्य समाहित रहने वाले पुरुषको कहीं भी भय नहीं होता, वह परमज्ञानी हो जाता है और ज्ञानी कहीं भी भय को प्राप्त नहीं होता | इसप्रकार ओंकार का ज्ञान हो जाने पर मनुष्य कृतार्थ हो जाता है, वह लौकिक पदार्थों के मोहपाश से भी मुक्त हो जाता है |
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