गुरुवार, 18 मार्च 2021

कठोपनिषद्

  पराञ्चि खानि व्यतृणत्स्वयम्भूस्तस्मात् पराङ्पश्यति नान्तरात्मन् |

कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मान मैक्षदावृत्तचक्षुर मृतत्वमिच्छन् ||

पराचः कामाननुयन्ति बालास्ते मृत्योर्यन्ति विततस्य पाशम् |

अथ धीरा अमृतत्वं विदित्वा ध्रुवमध्रुवेष्विह न प्रार्थयन्ते ||

स्रोत- कठोपनिषद् 

संकेत- 

प्रस्तुत मंत्र कठोपनिषद् के द्वितीय अध्याय की प्रथमा वल्ली से लिया गया है | मंत्र के द्वारा यमदेव 

जी वाजश्रवस के पुत्र नचिकेता को आत्मज्ञान के मार्ग में आने वाली बाधाओं तथा विवेकी और अविवेकी 

में क्या अन्तर होता है इसका ज्ञानामृत पिला रहे हैं |

मंत्रार्थ- 

परब्रह्म परमेश्वर ने चक्षुरादि सभी इन्द्रियों को बहिर्मुखी प्रवृत्ति वाला बनाया है, जिसके द्वारा जीव 

बाह्यबिषयों को ही देख पाता है, अन्तरात्माको नहीं | जिसने अमरत्व की इच्छा करते हुए अपनी 

इन्द्रियों को वशीभूत कर लिया हो, ऐसा धीरपुरुष ही आत्मसाक्षात्कार कर पाता है | अल्पज्ञपुरुष 

बाह्यभोगों के पीछे लगे रहते हैं तभी वै मृत्युके सर्वत्र फैले हुए पाश में पड़ते हैं | किन्तु विवेकी 

पुरुष अमरत्वको परमसत्य जानकर संसारके अनित्य पदार्थोंमेंसे किसी की भी इच्छा नहीं करते |

तात्पर्य- 

जो इन्द्रियाँ बहिर्मुख होकर ही शब्दादि विषयों को प्रकाशित करने के लिए प्रवृत हुआ करती हैं | 

वै इन्द्रियाँ स्वभाव से ही ऐसी हैं इसलिए उनका हनन कर दिया गया है | इनका हनन करने 

वाला परब्रह्म परमेश्वर स्वतः ही सर्वदा स्वतंत्र रहता है | अविवेकी पुरुष काम्यविषयों के पीछे 

लगे रहते हुए निरंतर जन्म-मरण, जरा और रोग आदि बहुत से अनर्थसमूह को प्राप्त होते हैं | 

ब्रह्मवेत्ता लोग इस अनर्थप्राय संसार के सम्पूर्ण अनित्य पदार्थों में से किसी की भी अभिलाषा 

नहीं करते क्योंकि वै सब तो परमात्मा प्राप्ति के मार्ग की बाधाएं हैं |





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