सूर्यो यथा सर्वलोकस्य चक्षुर्नलिप्यते चाक्षुषैर्बह्यिदोषैः |
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा न लिप्यते लोकदुःखेन बाह्यः ||
स्रोत- कठोपनिषद्
संकेत-
प्रस्तुत मंत्र कठोपनिषद् द्वितीय अध्याय के द्वितीया वल्ली से लिया गया है |
मंत्र के द्वारा दुर्विज्ञेय ब्रह्मतत्वका प्रकारान्तर से जानने के क्रम में जगतात्मा
सूर्य को लेकर ब्रह्मनिरूपण किया गया है जिसमें आत्मा की असंगता के विषय
में बताया गया है कि अंतरात्मा केवल दृष्टा है वह संसार के बाह्य भोगों से दूर
ही रहता है, उसमें लिप्त नहीं होता |
मंत्रार्थ-
जिसप्रकार सम्पूर्ण लोकों का नेत्र होकर भी सूर्य नेत्रसंबंधी बाह्यदोषों से लिप्त नहीं होता उसी
प्रकार सम्पूर्ण भूतों का एक ही अन्तरात्मा संसार के दुःख से लिप्त नहीं होता, बल्कि उससे
बाहर ही रहता है वह दृष्टा मात्र है |
तात्पर्य-
जिसप्रकार सूर्य अपने प्रकाश से लोक का उपकार करता हुआ अर्थात मल-मूत्र आदि अपवित्र वस्तुओं
को प्रकाशित करने के कारण उन्हें देखने वाले समस्त लोकों का नेत्ररूप होकर भी अपवित्र पदार्थादिके
देखने से प्राप्त हुए आध्यात्मिक पापदोष तथा अपवित्र संसर्ग से होने वाले बाह्यदोषों से लिप्त नहीं
होता, उसीप्रकार सम्पूर्ण भूतों का एक ही अंतरात्मा लोक के दुःख से लिप्त नहीं होता, बल्कि उससे
बाहर ही रहता है | संसारी अपने आत्मा में आरोपित अविद्या के कारण ही कामना और कर्म जनित
दुखों का अनुभव करता है |