शनिवार, 21 सितंबर 2013


!! श्राद्ध-तर्पण से खुलते हैं सौभाग्य के दरवाजे !!
यूँ तो बद्रीनाथ धाम, पुष्कर तीर्थ, शूकर क्षेत्र, कुरुक्षेत्र, गंगा तट, काशी, सातों मोक्षदाईक पुरियां सहित अनेकों स्थानों 
पर श्राद्ध-तर्पण करने का विधान शास्त्रों में वर्णित है, किन्तु गयातीर्थ में किया गया श्राद्ध-पिंडदान का फल अमोघ 
और पुण्यदाई कहागया है ऐसी मान्यता है कि गया में पिंडदान करने के पश्च्यात जीवात्मा को 
फिर श्राद्ध करने की आवश्यकता नहीं रहती ! इसलिए गया को ही श्रेष्ठतीर्थ मानागया है सभी शास्त्रों-पुराणों में 
इस तीर्थ का फल सर्वाधिक बताया गया है ! शास्त्रों के अनुसार वर्षपर्यंत श्राद्ध करने के 96 अवसर आते हैं ये हैं
 बारह महीने की बारह अमावस्या, सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुगके प्रारम्भ की चार तिथियाँ, मनुवों के आरम्भ 
की चौदह मन्वादि तिथियाँ, बारह संक्रांतियां, बारह वैधृति योग, बारह व्यतिपात योग, पंद्रह श्राद्ध पक्ष की तिथियाँ, 
पांच अष्टका पांचअन्वष्टका और पांच पूर्वेद्युह ये श्राद्ध करने छियानबे अवसर हैं !
पितरों के लिए श्रद्धापूर्वक किए गए मुक्ति कर्म को श्राद्ध कहते हैं तथा उन्हें अक्षत और तिल मिश्रित जल अर्पित करने 
की क्रिया को तर्पण कहते हैं ! तर्पण करना ही पिंडदान करना है अतः सत्य और श्रद्धा से किए गए जिस कर्म से 
हमारे पूर्वज और आचार्य तृप्त हों वह ही तर्पण है ! वेदों में श्राद्ध को पितृयज्ञ कहा गया है यह श्राद्ध-तर्पण हमारे पूर्वजों, 
माता, पिता और आचार्य के प्रति एक विशेष तरह का सम्मान का भाव है ! इसी पितृयज्ञ यज्ञ के करने से प्राणी की 
वंश वृद्धि होती है और संतान को सही शिक्षा-दीक्षा भी मिलती है वह व्यक्ति पूर्णतः संपन्न होकर पृथ्वी के 
समस्त ऐश्वर्यों का भोग करता हुआ उत्तम लोक का वासी होता है वेदानुसार यज्ञ पांच प्रकार के होते हैं ब्रह्म यज्ञ, 
देव यज्ञ, पितृयज्ञ, वैश्वदेव यज्ञ, अतिथि यज्ञ, इन पांच यज्ञों के विषय में पुराणों और अन्य ग्रंथों में विस्तार से 
वर्णन किया गया है। उक्त पांच यज्ञ में से ही एक यज्ञ है पितृयज्ञ ! इसे पुराण में श्राद्ध कर्म की संज्ञा दी गई है ! 
जिन ब्राह्मणों को श्राद्ध में भोजन कराया जाता है, उन्हीं के शरीर में प्रविष्ट होकर पितृगण भी भोजन करते हैं 
उसके बाद अपने कुल के श्राद्धकर्ता को आशीर्वाद देकर पितृलोक चले जाते हैं किसी भी माह की जिस तिथि में 
परिजन की मृतु हुई हो इस श्राद्ध पक्ष (महालय) में उसी संबधित तिथि में श्राद्ध करना चाहियें कुछ ख़ास तिथियाँ 
भी हैं जिनमें किसी भी प्रक्रार की मृत वाले परिजन का श्राद्ध किया जाता है शौभाग्यवती यानि पति के रहते ही 
जिनकी मृत्यु हो गयी हो उन नारियों का श्राद्ध नवमी तिथि में किया जाता है, एकादशी में वैष्णव सन्यासी का 
श्राद्ध चतुर्दशी में शस्त्र, आत्म हत्या, विष और दुर्घटना आदि से मृत लोंगों का श्राद्ध किया जाता है ! इसके अतिरिक्त
सर्पदंश,ब्राह्मण श्राप, वज्रघात, अग्नि से जले हुए, दंतप्रहार-पशु के आक्रमण से, फांसी लगाकर मृत्य, क्षय जैसे 
महारोग हैजा, डाकुओं के मारे जाने से हुई मृत्यु वाले प्राणी श्राद्धपक्ष की चतुर्दशी और अमावस्या के दिन तर्पण 
और श्राद्ध करना चाहिये !जिनका मरने पर संस्कार नहीं हुआ हो उनका भी अमावस्या को ही करना चाहिए !
       पित्रों के स्वामी भगवान् जनार्दन के ही शरीर के पसीने से तिल की और रोम से कुश की उतपत्ति 
हुई है इसलिए तर्पण और अर्घ्य के समय तिल और कुश का प्रयोग करना चाहिए ! श्राद्ध में ब्राह्मण भोज का सबसे 
पुण्यदायी समय कुतप, दिन का आठवां मुहूर्त 11बजकर 36मिनट से १२बजकर २४ मिनट तक का समय सबसे 
उत्तम है! शास्त्र मत है की श्राद्धं न कुरुते मोहात तस्य रक्तं पिबन्ति ते ! अर्थात जो श्राद्ध नहीं करते उनके पितृ 
उनका ही रक्तपान करते हैं और साथ ही, पितरस्तस्य शापं दत्वा प्रयान्ति च !  अतः अमावस्या तक प्रतीक्षा करके
 अपने परिजन को श्राप  देकर पितृलोक चले जाते हैं !  पं जय गोविन्द शास्त्री 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें