सोमवार, 13 अप्रैल 2015

'देवताओं का अभिजित मुहूर्त आरम्भ, सूर्यदेव की मेष संक्रान्ति 14 अप्रैल को
संवत्सर की बारह संक्रातियों में प्रमुख मेष संक्रांति 14 अप्रैल को दोपहर 01 बजकर 45 मिनट से आरम्भ हों जायेगी | इसी के साथ ही मांगलिक कार्यों के
लिए अशुभ माना जाने वाला खरमास समाप्त हो जाएगा | सूर्य के मेष राशि में प्रवेश के साथ ही देवताओं का 'चक्रसुदर्शन मुहूर्त' आरम्भ हों जाएगा यही
दक्षिणायन सूर्य का मध्य भी होता है | ज्योतिषीय गणना के अनुसार इस राशि के आने पर सूर्य अपनी सर्वोच्च शक्तिओं से संपन्न रहते हैं अतः इस अवधि
के मध्य जन्म लेने वाले जातक अपनी कामयाबियों के बीच आरहे कष्टों-संघर्षों को परास्त करके लक्ष्य तक पहुचते हैं और अपनी अलग पहचान बनाने में
सफल रहते हैं | यह संक्राति मंगलवार को मंगल के ही नक्षत्र धनिष्ठा और शुभ योग में पड़ रहा है, इसलिए सूर्य और मंगल का यह योग और भी प्रभावकारी
सिद्ध होगा | इस अवधि में किया जाने वाला दान-पुण्य, जप-तप, पूजा-पाठ का फल अक्षुण रहता है | भगवान कृष्ण ने एक हजार वर्ष तपस्या करके सूर्य से 'सूर्यचक्र'
वरदान स्वरुप प्राप्त किया था ! भगवान राम नित्य-प्रति सूर्य की उपासना करते थे | महर्षि अगस्त ने उन्हें सूर्य का प्रभावी मंत्र आदित्य ह्रदयस्तोत्र की दीक्षा
दी थी | ब्रह्मा जी इन्हीं के सहयोग से श्रृष्टि का सृजन करते हैं | शिव का त्रिशूल, नारायण का चक्रसुदर्शन और इंद्र का बज्र भी सूर्य के तेज से ही बना |
अर्घ्य देने मात्र से ही सूर्य प्रसन्न हों जाते हैं ! इनके उदय होते ही प्रतिदिन इंद्र पूजा करते हैं, दोपहर के समय यमराज, अस्त के समय वरुण और अर्धरात्रि में
चन्द्रमा पूजन करते हैं | विष्णु, शिव, रूद्र, ब्रह्मा, अग्नि, वायु, ईशान आदि सभी देवगण रात्रि कि समाप्ति पर ब्रह्मवेला में कल्याण के लिए सदा सूर्य की ही
आराधना करते हैं | इसीलिए इन सभी देवों में सूर्य का ही तेज व्याप्त है, इन्हें गुड़हल अथवा मंदार पुष्प की माला सर्वाधिक प्रिय है ! इसके अतिरिक्त
कनेर, बकुल, मल्लिका, के पुष्प ताबे के पात्र में जल के साथ सूर्यार्घ्य देने से सभी प्रकार के कष्ट दूर हो जाते हैं ! मेष, मिथुन, कर्क, सिंह, बृश्चिक, धनु
एवं कुंभ राशि वालों के लिए सूर्य की मेष संक्रांति मान-सम्मान पद प्रतिष्ठा की वृद्धि कराएगी ! नए कार्य और अनुबंध के योग बनेगें ! बृषभ, कन्या, तुला,
मकर और मीन राशि वालों के लिए मिश्रित फल कारक ही रहेगी ! पं जयगोविंद शास्त्री

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