मंगलवार, 18 जुलाई 2017

मित्रों, आज दैनिक हिन्दुस्तान के धर्मक्षेत्रे पेज पर मेरा आलेख- 
तीनों लोकों में प्रतिष्ठित हैं महाकाल पं जयगोविन्द शास्त्री 
परमेश्वर श्रीमहाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग के 'दर्शनाभिषेक' हेतु पवित्र श्रावणमाह आरम्भ हो चुका है, वर्षों बाद श्रावणमाह सम्पुट सोमवारों वाला है जिसके आरम्भ में भी सोमवार और समापन में भी सोमवार ही है अतः प्राणियों के लिए श्रीमहाकालेश्वर का स्तवन कर उनकी कृपा प्राप्ति का ये संयोग दिव्य है जो दैहिक, दैविक और भौतिक जैसे महादुखों से मुक्ति दिलाने वाला है |वर्तमान श्रीश्वेतवाराहकल्प में श्रीमहाकाल तीनों लोकों में त्रयज्योतिर्लिंग के रूप विद्यमान हैं जिनमें 'आकाशे तारकं लिंगम, पाताले हाटकेश्वरम | भूलोके च महाकाल लिंगत्रय नमोस्तुते || अर्थात- देवताओं की आराधना के लिए आकाश में तारक ज्योतिर्लिंग, महादैत्यों की आराधना के पाताल में हाटकेश्वर तथा भूलोक वासियों की समस्त मनोकानाएं पूर्ण करने के लिए उज्जयिनी में श्रीमहाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग के रूप में विद्यमान हैं | शिवपुराण के अनुसार श्रीमहाकाल की परमशक्ति माँ श्रीमहाकाली हैं जिनका महाविद्याओं सर्वोच्च स्थान है, सृष्टि संहार में ये ही महाकाल की सहायक रहती हैं | कहा गया है कि उसका काल भी क्या करे जो भक्त हो महाकाल का | महाकाल सूक्षतमकाल के भी नियंत्रक हैं जीवन में काल की महत्ता सर्वोपरि है जिसने प्राणी काल को साध लिया काल उसका सहायक हो गया जिसने काल का तिरस्कार किया वह महाकाल की ज्वालाग्नि में भष्म हो गया | श्रीमहाकालेश्वर मृत्युलोक के अधिपति हैं तांत्रिक परम्परा में प्रसिद्ध दक्षिणमुखी पूजा का महत्व बारह ज्योतिर्लिंगों में केवल श्रीमहाकालेश्वर को ही प्राप्त है इसीलिए यहाँ वाममार्गी और दक्षिण मार्गी दोनों प्रकार के भक्तों की भारी भीड़ रहती है इनके दर्शन मात्र से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है और स्वप्न में भी किसी प्रकार का संकट नहीं आ सकता, जो भी सच्चे मन से श्रीमहाकालेश्वर की उपासना करता है, उसकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं | अवन्तीका पूरी (उज्जैन) में इनका प्राकट्य अपने 'रुद्राभिषेकीब्राहमण' भक्तों की 'दूषण' नामक महादैत्य से रक्षा के लिए हुआ उन्हीं ब्राह्मणों के स्तवन से प्रसन्न होकर काल ने दैत्य सेना का हुंकार मात्र से संहार कर दिया और भक्तों के दुःख दूर करने के लिए यहीं महाकाल के रूप में प्रतिष्ठित हुए | इनका अमोघमंत्र ॐ नमः शिवाय करालं महाकाल कालं कृपालं ॐ नमः शिवाय' का प्रातः काल जप करके प्राणी यात्रा पर जाय तो कार्य निर्विघ्न पूर्ण होते हैं और प्राणी सकुशल घर वापस आता है |

गुरुवार, 13 जुलाई 2017

मित्रों ॐनमः शिवायॐ मेरे परमेश्वर श्रीमहाकाल (उज्जैन) ने पवित्र श्रावण के आरम्भ होते ही कल भष्मआरती में वैदिकमंत्रोच्चार, भजन-कीर्तन का अद्भुत सुख प्राप्ति का सुअवसर दिया..

रविवार, 9 जुलाई 2017

गुरु पूर्णिमापर्व' शिष्य को आत्मवत कराने का दिन, सृष्टि के आरम्भ से ही शुरू हुई गुरु-शिष्य की परंपरा..
वर्तमान श्रीश्वेतवाराह कल्प में ब्रह्म के विग्रह रूप श्रीपरमेश्वर ने नारायण का 'विष्णु' रूप में नामकरण किया और उन्हें 'ॐ'कार रूपी महामंत्र का जप करने की आज्ञा दी | श्रीविष्णु हज़ारों वर्षतक घोर तपस्या किये, तत्पश्च्यात परमेश्वर प्रसन्न होकर उन्हें सृष्टि की उत्पत्ति, पालन एवं संहार करने पूर्णता प्रदान की | श्रीविष्णु के कमलनाल से ब्रह्मा की उतपत्ति हुई, ब्रह्मा का अन्तःकरण भी मोहरूपी अज्ञानता के कारण भटकने लगा और उनके मन में परमेश्वर की सत्ता के प्रति तरह-तरह आशंकाएं जन्म लेने लगीं | वे उन परमेश्वर की सत्ता को अपनी ही सत्ता समझने लगे | ब्रह्मा को अज्ञानता से मुक्त करने के लिए परमेश्वर ने अपने हृदय से योगियों के परमसूक्ष्मतत्व श्रीरूद्र को प्रकट किया जिन्होंने ब्रह्मा के अंतर्मन को विशुद्ध करने के लिए 'ॐ नमः शियाय' मंत्र का जप करने की आज्ञा दी | जिसके फलस्वरूप ब्रह्मा का मोहरूपी अन्धकार दूर हुआ तभी से गुरु शिष्य परम्परा आरम्भ हुई | उसके बाद ब्रह्मा के पुत्र गुरु 'वशिष्ट' सूर्यवंश के गुरु हुए, अग्नि के अंश बृहस्पति देवताओं के गुरु हुए ! भृगु पुत्र शुक्राचार्य दैत्यों के और महर्षि गर्ग यदुवंशियों के गुरु हुए | अतः प्रत्येक युग में गुरु की सत्ता परमब्रह्म की तरह कण-कणमें व्याप्त रही है ! गुरु विहीन संसार अज्ञानता की कालरात्रि मात्र ही है ! गुरु-शिष्य का सम्बन्ध केवल परमात्मा की प्राप्ति के लिए ही होता है गुरु की महिमा वास्तवमेँ शिष्य की दृष्टि से है, गुरुकी दृष्टि से नहीँ | एक गुरु की दृष्टि होती है, एक शिष्य की दृष्टि होती है और एक तीसरे आदमी की दृष्टि होती है ! गुरु की दृष्टि यह होती है कि मैँने कुछ नहीँ किया, प्रत्युत जो स्वतः-स्वाभाविक वास्तविक तत्व है, उसकी तरफ शिष्य की दृष्टि करा दी ! तात्पर्य यह कि मैँने उसी के स्वरुप का उसीको बोध कराया है, अपने पास से उसको कुछ दिया ही नहीँ | शिष्य की दृष्टि यह होती है कि गुरु ने मुझे सब कुछ दे दिया ! जो कुछ हुआ है, सब गुरु की कृपा से ही हुआ है ! तीसरे आदमी की दृष्टि यह होती है कि शिष्य की श्रद्धा से ही उसको ज्ञान हुआ है | किन्तु असली महिमा उस गुरु की ही है, जिसने शिष्य को परमात्मा से मिला दिया है | गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है कि ''गुरु बिन भवनिधि तरई न कोई | जो बिरंचि संकर सम होई || अर्थात- गुरु की कृपा प्राप्ति के बगैर जीव संसार सागर से मुक्त नहीं हो सकता चाहे वह ब्रह्मा और शंकर के समान ही क्यों न हो | शास्त्रों में 'गु' का अर्थ अंधकार या मूल अज्ञान, और 'रु' का अर्थ उसका निरोधक, 'प्रकाश' बताया गया है | गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन से निवारण कर देता है, अर्थात अंधकार से हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाला 'गुरु' ही है | गुरु तथा देवता में समानता के लिए कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी | 'तमसो मा ज्योतिगर्मय' अंधकार की बजाय प्रकाश की ओर ले जाना ही गुरुता है |
गुरु स्तोत्रम्
ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्वमस्यादिलक्ष्यम्। 
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि॥
अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्। तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम:॥
अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम:॥
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु: गुरुर्देवो महेश्वर:। गुरु: साक्षात्परब्रह्म: तस्मै श्रीगुरवे नम:॥
स्थावरं जंगमं व्याप्तं यत्किंचित्सचराचरम्। तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम:॥
चिन्मयं व्यापियत्सर्वं त्रैलोक्यं सचराचरम्। तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम:॥
सर्वश्रुतिशिरोरत्नविराजित पदाम्बुज:। वेदान्ताम्बुजसूर्यो य: तस्मै श्रीगुरवे नम:॥
चैतन्य: शाश्वत:शान्तो व्योमातीतो निरंजन:। बिन्दुनाद: कलातीत: तस्मै श्रीगुरवे नम:॥
ज्ञानशक्तिसमारूढ: तत्त्वमालाविभूषित:। भुक्तिमुक्तिप्रदाता च तस्मै श्रीगुरवे नम:॥
अनेकजन्मसंप्राप्त कर्मबन्धविदाहिने। आत्मज्ञानप्रदानेन तस्मै श्रीगुरवे नम:॥
शोषणं भवसिन्धोश्च ज्ञापणं सारसंपद:। गुरो: पादोदकं सम्यक् तस्मै श्रीगुरवे नम:॥
न गुरोरधिकं तत्त्वं न गुरोरधिकं तप:। तत्त्वज्ञानात्परं नास्ति तस्मै श्रीगुरवे नम:॥
मन्नाथ: श्रीजगन्नाथ: मद्गुरु: श्रीजगद्गुरु:। मदात्मा सर्वभूतात्मा तस्मै श्रीगुरवे नम:॥
गुरुरादिरनादिश्च गुरु: परमदैवतम्। गुरो: परतरं नास्ति तस्मै श्रीगुरवे नम:॥
त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देव देव॥ पं जयगोविन्द शास्त्री

गुरुवार, 25 मई 2017

श्रीकालभैरवाष्टकं    प्रस्तुति पं जयगोविन्द शास्त्री
ॐ करकलितकपाल: कुण्डली दण्डपाणिः तरुणतिमिरवर्णो व्यालयज्ञोपवीती |
क्रतु समयसपर्या विघ्नविच्छेद हेतुः, जयति बटुकनाथ सिद्धिदासाधकानाम् ||

दॆवराज सॆव्यमान पावनाङ्घ्रि पङ्कजं व्यालयज्ञसूत्रमिन्दुशॆखरं कृपाकरम् |
नारदादि यॊगिवृन्द वन्दितं दिगम्बरं काशिकापुराधिनाथ कालभैरवं भजॆ ||

भानुकॊटिभास्वरं भवाब्धितारकं परं नीलकण्ठ मीप्सितार्थदायकं त्रिलॊचनम् |
कालकालमम्बुजाक्ष मक्षशूल मक्षरं काशिकापुराधिनाथ कालभैरवं भजॆ ||

शूलटङ्क पाशदण्ड पाणिमादि कारणं श्यामकायमादिदॆवमक्षरं निरामयम् |
भीमविक्रमंप्रभुं विचित्रताण्डव प्रियं काशिकापुराधिनाथ कालभैरवं भजॆ ||

भुक्तिमुक्ति दायकं प्रशस्तचारुविग्रहं भक्तवत्सलंस्थितं समस्तलॊक विग्रहम् |
विनिक्वणन् मनॊज्ञ हॆमकिङ्किणीलसत्कटिं काशिकापुराधिनाथ कालभैरवं भजॆ ||

धर्मसॆतुपालकं त्वधर्ममार्गनाशकं कर्मपाश मॊचकं सुशर्म दायकं विभुम् |
स्वर्णवर्ण कॆशपाश शोभिताङ्ग निर्मलं काशिकापुराधिनाथ कालभैरवं भजॆ ||

रत्नपादुका प्रभाभिराम पादयुग्मकं नित्यमद्वितीय मिष्ट दैवतं निरञ्जनम् |
मृत्युदर्प नाशनं करालदंष्ट्र मोक्षणं काशिकापुराधिनाथ कालभैरवं भजॆ ||

अट्टहास भिन्नपद्मजाण्डकॊश सन्ततिं दृष्टिपात नष्टपाप जालमुग्र शासनम् ।
अष्टसिद्धि दायकं कपालमालिकन्धरं काशिकापुराधिनाथ कालभैरवं भजॆ ||

भूतसङ्घनायकं विशालकीर्तिदायकं काशिवासिलॊक पुण्यपाप शॊधकं विभुम् |
नीतिमार्ग कॊविदं पुरातनं जगत्पतिं काशिकापुराधिनाथ कालभैरवं भजॆ ||

कालभैरवाष्टकं पठन्ति यॆ मनॊहरं ज्ञानमुक्तिसाधनं विचित्रपुण्य वर्धनम् |
शॊकमॊहलॊभदैन्यकॊपताप नाशनं तॆ प्रयान्ति कालभैरवाङ्घ्रि सन्निधिं ध्रुवम् ||

सोमवार, 22 मई 2017

श्रीशनि स्तोत्र संपादन- पं जयगोविन्द शास्त्री
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीशनि स्तोत्र मंत्रस्य, कश्यप ऋषिः,
त्रिष्टुप् छन्दः, सौरिर्देवता, शं बीजम्, निः शक्तिः,
कृष्णवर्णेति कीलकम्, धर्मार्थ-काम-मोक्षात्मक-चतुर्विध
पुरुषार्थ-सिद्धयर्थे जपे विनियोगः|
कर न्यासः-
शनैश्चराय अंगुष्ठाभ्यां नमः | मन्दगतये तर्जनीभ्यां नमः |
अधोक्षजाय मध्यमाभ्यां नमः | कृष्णांगाय अनामिकाभ्यां
नमः | शुष्कोदराय कनिष्ठिकाभ्यां नमः। छायात्मजाय
करतलकर पृष्ठाभ्यां नमः |
हृदयादि-न्यासः-
शनैश्चराय हृदयाय नमः | मन्दगतये शिरसे स्वाहा |
अधोक्षजाय शिखायै वषट् | कृष्णांगाय कवचाय हुम् |
शुष्कोदराय नेत्र-त्रयाय वौषट् | छायात्मजाय अस्त्राय फट् |
दिग्बन्धनः- ''ॐ भूर्भुवः स्वः''........शनिदेव का ध्यान मंत्र-

नीलद्युतिं शूलधरं किरीटिनं गृध्रस्थितं त्रासकरं धनुर्धरम् |
चतुर्भुजं सूर्यसुतं प्रशान्तं वन्दे सदाभीष्टकरं वरेण्यम् ||

नम: कृष्णाय नीलाय शितिकण्ठनिभाय च |
नम: कालाग्निरूपाय कृतान्ताय च वै नम: ||
नमो निर्मांस देहाय दीर्घश्मश्रुजटाय च |
नमो विशालनेत्राय शुष्कोदर भयाकृते ||
नम: पुष्कलगात्राय स्थूलरोम्णे च वै नम: |
नमो दीर्घायशुष्काय कालदंष्ट्र नमोऽस्तुते ||
नमस्ते कोटराक्षाय दुर्निरीक्ष्याय वै नम: ||
नमो घोराय रौद्राय भीषणाय करालिने ||
नमस्ते सर्वभक्षाय बलीमुख नमोऽस्तुते |
सूर्यपुत्र नमस्तेऽस्तु भास्करे भयदाय च ||
अधोदृष्टे नमस्तेऽस्तु संवर्तक नमोऽस्तुते |
नमो मन्दगते तुभ्यं निस्त्रिंशाय नमोऽस्तुते ||
तपसा दग्धदेहाय नित्यं  योगरताय च |
नमो नित्यं क्षुधार्ताय अतृप्ताय च वै नम: ||
ज्ञानचक्षुर्नमस्तेऽस्तु कश्यपात्मज सूनवे |
तुष्टो ददासि वै राज्यं रुष्टो हरसि तत्क्षणात् ||
देवासुरमनुष्याश्च  सिद्घविद्याधरोरगा: |
त्वया विलोकिता: सर्वे नाशं यान्ति समूलत: ||
प्रसादं कुरु मे सौरे ! वरदो भव भास्करे |
एवं स्तुत: तदा सौरिर्ग्रहराजो महाबल: ||

शनिवार, 13 मई 2017

वेदाः सांगोपनिषदः पुराणाध्यात्मनिश्चयाः ! यदत्र परमं गुह्यं स वै देवो महेश्वरः !!
अर्थात- वेद, वेदांग, उपनिषद् पुराण और आध्यात्मशास्त्रके जो सिद्धांत हैं तथा
उनमें जो भी परम रहस्य है, वह मेरे परमेश्वर केदारेश्वर ही हैं |

सोमवार, 6 फ़रवरी 2017

मित्रों प्रणाम ! मेरे परमेश्वर श्रीमहाकाल की असीम कृपा से बसंत पंचमी के पावन अवसर पर श्रीरामेश्वरम ज्योतिर्लिंगधाम (तमिलनाडु) में समुद्रतट से 2किलोमीटर दूर स्टीमर के द्वारा हिन्द महासागर में श्रीमहारुद्राभिषेक के समय के कुछ चित्र,