तिस्रो मात्रा मृत्युमत्यः प्रयुक्ता अन्योन्यसक्ता अनविप्रयुक्ताः |
क्रियासु बाह्याभ्यन्तरमध्यमासु सम्यक्प्रयुक्तासु न कम्पते ज्ञः ||
स्रोत- प्रश्नोपनिषद् 'ब्राह्मणभाग'
संकेत:
प्रस्तुत मंत्र अथर्ववेदीय प्रश्नोपनिषद् 'ब्राह्मणभाग' के पंचमप्रश्न से लिया गया है जिसमें शिबिपुत्र
सत्यकाम के द्वारा महामुनि पिप्पलाद से प्रश्न किया गया है कि भगवन ! 'अक्षर ब्रह्म' ओंकार
की तीनों मात्राओं 'अकार, उकार तथा मकार की विशेषता क्या है ? इनकी उपासना से क्या फल
मिलता है |
मंत्रार्थ:
ओंकार की तीनों मात्राएँ पृथक पृथक रहने पर मृत्युसे युक्त हैं तभी इन्हें मृत्युमती भी कहा गया है |
वै ध्यान क्रिया में प्रयुक्त होती हैं और परस्पर सम्बद्ध तथा अनविप्रयुक्ता (जिनका विपरीत प्रयोग
न किया गया हो ऐसे) हैं | इस प्रकार बाह्य (जाग्रत) आभ्यंतर (सुषुप्ति) और मध्यम (स्वप्नस्थानीय)
क्रियाओं में उनका सम्यक प्रयोग किया जाने पर ज्ञाता पुरुष विचलित नहीं होता |
तात्पर्य:
अक्षर ब्रह्म ओंकार में प्रयुक्त होने वाली तीनों मात्राएँ 'अकार, उकार और मकार' मृत्यु से परे नहीं हैं |
इनकी भी मृत्यु होती है | वै आत्मा की ध्यानक्रियाओं में प्रयुक्त होती हैं और एक दुसरे से सम्बद्ध हैं
इसीलिए उन्हें 'अनविप्रयुक्ता' कहा गया है | बाह्य, आभ्यंतर और मध्यम तीन क्रियाओं में योगी
(ओंकार की मात्राओं के विभाग को जानने वाला साधक) विचलित नहीं होता क्योंकि, सर्वात्मभूत
और ओंकारस्वरूपता को प्राप्त हुआ विद्वान् विषयासक्त से परे है |